बात पर वाँ ज़बान कटती है
वो कहें और सुना करे कोई
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इश्क़ मुझ को नहीं वहशत ही सही
वाँ उस को हौल-ए-दिल है तो याँ मैं हूँ शर्म-सार
वादा आने का वफ़ा कीजे ये क्या अंदाज़ है
इस सादगी पे कौन न मर जाए ऐ ख़ुदा
जो ये कहे कि रेख़्ता क्यूँके हो रश्क-ए-फ़ारसी
आँख की तस्वीर सर-नामे पे खींची है कि ता
सीखे हैं मह-रुख़ों के लिए हम मुसव्वरी
ता फिर न इंतिज़ार में नींद आए उम्र भर
क्यूँ गर्दिश-ए-मुदाम से घबरा न जाए दिल
गरचे है तर्ज़-ए-तग़ाफ़ुल पर्दा-दार-ए-राज़-ए-इश्क़
अदा-ए-ख़ास से 'ग़ालिब' हुआ है नुक्ता-सरा
भागे थे हम बहुत सो उसी की सज़ा है ये