अपनी हस्ती ही से हो जो कुछ हो
आगही गर नहीं ग़फ़लत ही सही
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क़फ़स में हूँ गर अच्छा भी न जानें मेरे शेवन को
हर क़दम दूरी-ए-मंज़िल है नुमायाँ मुझ से
पूछे है क्या वजूद ओ अदम अहल-ए-शौक़ का
मेरी क़िस्मत में ग़म गर इतना था
शुमार-ए-सुब्हा मर्ग़ूब-ए-बुत-ए-मुश्किल-पसंद आया
बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मिरे आगे
गई वो बात कि हो गुफ़्तुगू तो क्यूँकर हो
अर्ज़-ए-नियाज़-ए-इश्क़ के क़ाबिल नहीं रहा
याद है शादी में भी हंगामा-ए-या-रब मुझे
ख़त लिखेंगे गरचे मतलब कुछ न हो
दहर में नक़्श-ए-वफ़ा वजह-ए-तसल्ली न हुआ
मरते मरते देखने की आरज़ू रह जाएगी