अपनी गली में मुझ को न कर दफ़्न बाद-ए-क़त्ल
मेरे पते से ख़ल्क़ को क्यूँ तेरा घर मिले
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दिल में ज़ौक़-ए-वस्ल ओ याद-ए-यार तक बाक़ी नहीं
लब-ए-ख़ुश्क दर-तिश्नगी-मुर्दगाँ का
ए'तिबार-ए-इश्क़ की ख़ाना-ख़राबी देखना
चाहिए अच्छों को जितना चाहिए
हुस्न-ए-बे-परवा ख़रीदार-ए-माता-ए-जल्वा है
मैं भी रुक रुक के न मरता जो ज़बाँ के बदले
क़त्अ कीजे न तअ'ल्लुक़ हम से
मुझ तक कब उन की बज़्म में आता था दौर-ए-जाम
क्या वो नमरूद की ख़ुदाई थी
मत मर्दुमक-ए-दीदा में समझो ये निगाहें
मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का
'ग़ालिब'-ए-ख़स्ता के बग़ैर कौन से काम बंद हैं