अदा-ए-ख़ास से 'ग़ालिब' हुआ है नुक्ता-सरा
सला-ए-आम है यारान-ए-नुक्ता-दाँ के लिए
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बस कि फ़ा'आलुम्मा-युरीद है आज
रखियो 'ग़ालिब' मुझे इस तल्ख़-नवाई में मुआफ़
हुए मर के हम जो रुस्वा हुए क्यूँ न ग़र्क़-ए-दरिया
तुम जानो तुम को ग़ैर से जो रस्म-ओ-राह हो
ग़ैर को या रब वो क्यूँकर मन-ए-गुस्ताख़ी करे
देखना तक़रीर की लज़्ज़त कि जो उस ने कहा
कलकत्ते का जो ज़िक्र किया तू ने हम-नशीं
घर हमारा जो न रोते भी तो वीराँ होता
शाहिद-ए-हस्ती-ए-मुतलक़ की कमर है आलम
जिस बज़्म में तू नाज़ से गुफ़्तार में आवे
क्या फ़र्ज़ है कि सब को मिले एक सा जवाब
इब्न-ए-मरयम हुआ करे कोई