आतिश-ए-दोज़ख़ में ये गर्मी कहाँ
सोज़-ए-ग़म-हा-ए-निहानी और है
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जब तक दहान-ए-ज़ख़्म न पैदा करे कोई
जो ये कहे कि रेख़्ता क्यूँके हो रश्क-ए-फ़ारसी
जिस ज़ख़्म की हो सकती हो तदबीर रफ़ू की
नक़्श फ़रियादी है किस की शोख़ी-ए-तहरीर का
गो मैं रहा रहीन-ए-सितम-हा-ए-रोज़गार
रेख़्ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो 'ग़ालिब'
सीमाब-पुश्त गर्मी-ए-आईना दे है हम
कोई दिन गर ज़िंदगानी और है
बुलबुल के कारोबार पे हैं ख़ंदा-हा-ए-गुल
मय वो क्यूँ बहुत पीते बज़्म-ए-ग़ैर में या रब
इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना
तस्कीं को हम न रोएँ जो ज़ौक़-ए-नज़र मिले