आईना क्यूँ न दूँ कि तमाशा कहें जिसे
ऐसा कहाँ से लाऊँ कि तुझ सा कहें जिसे
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गुलशन को तिरी सोहबत अज़-बस-कि ख़ुश आई है
अगले वक़्तों के हैं ये लोग इन्हें कुछ न कहो
हर इक मकान को है मकीं से शरफ़ 'असद'
है ख़याल-ए-हुस्न में हुस्न-ए-अमल का सा ख़याल
पए-नज़्र-ए-करम तोहफ़ा है शर्म-ए-ना-रसाई का
ग़म नहीं होता है आज़ादों को बेश अज़-यक-नफ़स
मिलती है ख़ू-ए-यार से नार इल्तिहाब में
सब कहाँ कुछ लाला-ओ-गुल में नुमायाँ हो गईं
मज़े जहान के अपनी नज़र में ख़ाक नहीं
रहमत अगर क़ुबूल करे क्या बईद है
दाम-ए-हर-मौज में है हल्क़ा-ए-सद-काम-ए-नहंग
दिल ही तो है सियासत-ए-दरबाँ से डर गया