आ ही जाता वो राह पर 'ग़ालिब'
कोई दिन और भी जिए होते
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ख़त लिखेंगे गरचे मतलब कुछ न हो
हुस्न-ए-मह गरचे ब-हंगाम-ए-कमाल अच्छा है
बैठा है जो कि साया-ए-दीवार-ए-यार में
क्यूँकर उस बुत से रखूँ जान अज़ीज़
गर तुझ को है यक़ीन-ए-इजाबत दुआ न माँग
न था कुछ तो ख़ुदा था कुछ न होता तो ख़ुदा होता
पुर हूँ मैं शिकवे से यूँ राग से जैसे बाजा
बला से हैं जो ये पेश-ए-नज़र दर-ओ-दीवार
ज़िद की है और बात मगर ख़ू बुरी नहीं
इश्क़ तासीर से नौमीद नहीं
पूछते हैं वो कि 'ग़ालिब' कौन है
ये लाश-ए-बे-कफ़न 'असद'-ए-ख़स्ता-जाँ की है