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ज़माना सख़्त कम-आज़ार है ब-जान-ए-असद - ग़ालिब कविता - Darsaal

ज़माना सख़्त कम-आज़ार है ब-जान-ए-असद

ज़माना सख़्त कम-आज़ार है ब-जान-ए-असद

वगरना हम तो तवक़्क़ो ज़्यादा रखते हैं

तन-ए-ब-बंद-ए-हवस दर नदादा रखते हैं

दिल-ए-ज़-कार-ए-जहाँ ऊफ़्तादा रखते हैं

तमीज़-ए-ज़िश्ती-ओ-नेकी में लाख बातें हैं

ब-अक्स-ए-आइना यक-फ़र्द-ए-सादा रखते हैं

ब-रंग-ए-साया हमें बंदगी में है तस्लीम

कि दाग़-ए-दिल ब-जबीन-ए-कुशादा रखते हैं

ब-ज़ाहिदाँ रग-ए-गर्दन है रिश्ता-ए-ज़ुन्नार

सर-ए-ब-पा-ए-बुत-ए-ना-निहादा रखते हैं

मुआफ़-ए-बे-हूदा-गोई हैं नासेहान-ए-अज़ीज़

दिल-ए-ब-दस्त-ए-निगारे नदादा रखते हैं

ब-रंग-ए-सब्ज़ा अज़ीज़ान-ए-बद-ज़बान यक-दस्त

हज़ार तेग़-ए-ब-ज़हर-आब-दादा रखते हैं

अदब ने सौंपी हमें सुर्मा-साइ-ए-हैरत

ज़-बन-ए-बस्ता-ओ-चश्म-ए-कुशादा रखते हैं

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