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ज़ख़्म पर छिड़कें कहाँ तिफ़्लान-ए-बे-परवा नमक - ग़ालिब कविता - Darsaal

ज़ख़्म पर छिड़कें कहाँ तिफ़्लान-ए-बे-परवा नमक

ज़ख़्म पर छिड़कें कहाँ तिफ़्लान-ए-बे-परवा नमक

क्या मज़ा होता अगर पत्थर में भी होता नमक

गर्द-ए-राह-ए-यार है सामान-ए-नाज़-ए-ज़ख़्म-ए-दिल

वर्ना होता है जहाँ में किस क़दर पैदा नमक

मुझ को अर्ज़ानी रहे तुझ को मुबारक होजियो

नाला-ए-बुलबुल का दर्द और ख़ंदा-ए-गुल का नमक

शोर-ए-जौलाँ था कनार-ए-बहर पर किस का कि आज

गर्द-ए-साहिल है ब-ज़ख़्म-ए-मौज-ए-दरिया नमक

दाद देता है मिरे ज़ख़्म-ए-जिगर की वाह वाह

याद करता है मुझे देखे है वो जिस जा नमक

छोड़ कर जाना तन-ए-मजरूह-ए-आशिक़ हैफ़ है

दिल तलब करता है ज़ख़्म और माँगे हैं आज़ा नमक

ग़ैर की मिन्नत न खींचूँगा पय-ए-तौफ़ीर-ए-दर्द

ज़ख़्म मिस्ल-ए-ख़ंदा-ए-क़ातिल है सर-ता-पा नमक

याद हैं 'ग़ालिब' तुझे वो दिन कि वज्द-ए-ज़ौक़ में

ज़ख़्म से गिरता तो मैं पलकों से चुनता था नमक

इस अमल में ऐश की लज़्ज़त नहीं मिलती 'असद'

ज़ोर निस्बत मय से रखता है अज़ारा का नमक

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