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यक-ज़र्रा-ए-ज़मीं नहीं बे-कार बाग़ का - ग़ालिब कविता - Darsaal

यक-ज़र्रा-ए-ज़मीं नहीं बे-कार बाग़ का

यक-ज़र्रा-ए-ज़मीं नहीं बे-कार बाग़ का

याँ जादा भी फ़तीला है लाले के दाग़ का

बे-मय किसे है ताक़त-ए-आशोब-ए-आगही

खींचा है इज्ज़-ए-हौसला ने ख़त अयाग़ का

बुलबुल के कारोबार पे हैं ख़ंदा-हा-ए-गुल

कहते हैं जिस को इश्क़ ख़लल है दिमाग़ का

ताज़ा नहीं है नश्शा-ए-फ़िक्र-ए-सुख़न मुझे

तिर्याकी-ए-क़दीम हूँ दूद-ए-चराग़ का

सौ बार बंद-ए-इश्क़ से आज़ाद हम हुए

पर क्या करें कि दिल ही अदू है फ़राग़ का

बे-ख़ून-ए-दिल है चश्म में मौज-ए-निगह ग़ुबार

ये मय-कदा ख़राब है मय के सुराग़ का

बाग़-ए-शगुफ़्ता तेरा बिसात-ए-नशात-ए-दिल

अब्र-ए-बहार ख़ुम-कद किस के दिमाग़ का?

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