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वो मिरी चीन-ए-जबीं से ग़म-ए-पिन्हाँ समझा - ग़ालिब कविता - Darsaal

वो मिरी चीन-ए-जबीं से ग़म-ए-पिन्हाँ समझा

वो मिरी चीन-ए-जबीं से ग़म-ए-पिन्हाँ समझा

राज़-ए-मक्तूब ब-बे-रब्ती-ए-उनवाँ समझा

यक अलिफ़ बेश नहीं सैक़ल-ए-आईना हनूज़

चाक करता हूँ मैं जब से कि गरेबाँ समझा

शरह-ए-असबाब-ए-गिरफ़्तारी-ए-ख़ातिर मत पूछ

इस क़दर तंग हुआ दिल कि मैं ज़िंदाँ समझा

बद-गुमानी ने न चाहा उसे सरगर्म-ए-ख़िराम

रुख़ पे हर क़तरा अरक़ दीदा-ए-हैराँ समझा

इज्ज़ से अपने ये जाना कि वो बद-ख़ू होगा

नब्ज़-ए-ख़स से तपिश-ए-शोला-ए-सोज़ाँ समझा

सफ़र-ए-इश्क़ में की ज़ोफ़ ने राहत-तलबी

हर क़दम साए को मैं अपने शबिस्ताँ समझा

था गुरेज़ाँ मिज़ा-ए-यार से दिल ता दम-ए-मर्ग

दफ़-ए-पैकान-ए-क़ज़ा इस क़दर आसाँ समझा

दिल दिया जान के क्यूँ उस को वफ़ादार 'असद'

ग़लती की कि जो काफ़िर को मुसलमाँ समझा

हम ने वहशत-कदा-ए-बज़्म-ए-जहाँ में जूँ शम्अ'

शोला-ए-इश्क़ को अपना सर-ओ-सामाँ समझा

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