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वो फ़िराक़ और वो विसाल कहाँ - ग़ालिब कविता - Darsaal

वो फ़िराक़ और वो विसाल कहाँ

वो फ़िराक़ और वो विसाल कहाँ

वो शब-ओ-रोज़ ओ माह-ओ-साल कहाँ

फ़ुर्सत-ए-कारोबार-ए-शौक़ किसे

ज़ौक़-ए-नज़्ज़ारा-ए-जमाल कहाँ

दिल तो दिल वो दिमाग़ भी न रहा

शोर-ए-सौदा-ए-ख़त्त-ओ-ख़ाल कहाँ

थी वो इक शख़्स के तसव्वुर से

अब वो रानाई-ए-ख़याल कहाँ

ऐसा आसाँ नहीं लहू रोना

दिल में ताक़त जिगर में हाल कहाँ

हम से छूटा क़िमार-ख़ाना-ए-इश्क़

वाँ जो जावें गिरह में माल कहाँ

फ़िक्र-ए-दुनिया में सर खपाता हूँ

मैं कहाँ और ये वबाल कहाँ

मुज़्महिल हो गए क़वा ग़ालिब

वो अनासिर में ए'तिदाल कहाँ

बोसे में वो मुज़ाइक़ा न करे

पर मुझे ताक़त-ए-सवाल कहाँ

फ़लक-ए-सिफ़्ला बे-मुहाबा है

इस सितम-गर को इंफ़िआल कहाँ

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