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वारस्ता उस से हैं कि मोहब्बत ही क्यूँ न हो - ग़ालिब कविता - Darsaal

वारस्ता उस से हैं कि मोहब्बत ही क्यूँ न हो

वारस्ता उस से हैं कि मोहब्बत ही क्यूँ न हो

कीजे हमारे साथ अदावत ही क्यूँ न हो

छोड़ा न मुझ में ज़ोफ़ ने रंग इख़्तिलात का

है दिल पे बार नक़्श-ए-मोहब्बत ही क्यूँ न हो

है मुझ को तुझ से तज़्किरा-ए-ग़ैर का गिला

हर-चंद बर-सबील-ए-शिकायत ही क्यूँ न हो

पैदा हुई है कहते हैं हर दर्द की दवा

यूँ हो तो चारा-ए-ग़म-ए-उल्फ़त ही क्यूँ न हो

डाला न बे-कसी ने किसी से मुआमला

अपने से खींचता हूँ ख़जालत ही क्यूँ न हो

है आदमी बजाए ख़ुद इक महशर-ए-ख़याल

हम अंजुमन समझते हैं ख़ल्वत ही क्यूँ न हो

हंगामा-ए-ज़बूनी-ए-हिम्मत है इंफ़िआल

हासिल न कीजे दहर से इबरत ही क्यूँ न हो

वारस्तगी बहाना-ए-बेगानगी नहीं

अपने से कर न ग़ैर से वहशत ही क्यूँ न हो

मिटता है फ़ौत-ए-फ़ुर्सत-ए-हस्ती का ग़म कोई

उम्र-ए-अज़ीज़ सर्फ़-ए-इबादत ही क्यूँ न हो

उस फ़ित्ना-ख़ू के दर से अब उठते नहीं 'असद'

उस में हमारे सर पे क़यामत ही क्यूँ न हो

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