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तस्कीं को हम न रोएँ जो ज़ौक़-ए-नज़र मिले - ग़ालिब कविता - Darsaal

तस्कीं को हम न रोएँ जो ज़ौक़-ए-नज़र मिले

तस्कीं को हम न रोएँ जो ज़ौक़-ए-नज़र मिले

हूरान-ए-ख़ुल्द में तिरी सूरत मगर मिले

अपनी गली में मुझ को न कर दफ़्न बाद-ए-क़त्ल

मेरे पते से ख़ल्क़ को क्यूँ तेरा घर मिले

साक़ी-गरी की शर्म करो आज वर्ना हम

हर शब पिया ही करते हैं मय जिस क़दर मिले

तुझ से तो कुछ कलाम नहीं लेकिन ऐ नदीम

मेरा सलाम कहियो अगर नामा-बर मिले

तुम को भी हम दिखाएँ कि मजनूँ ने क्या किया

फ़ुर्सत कशाकश-ए-ग़म-ए-पिन्हाँ से गर मिले

लाज़िम नहीं कि ख़िज़्र की हम पैरवी करें

जाना कि इक बुज़ुर्ग हमें हम-सफ़र मिले

ऐ साकिनान-ए-कूचा-ए-दिलदार देखना

तुम को कहीं जो 'ग़ालिब'-ए-आशुफ़्ता-सर मिले

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