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सियाही जैसे गिर जाए दम-ए-तहरीर काग़ज़ पर - ग़ालिब कविता - Darsaal

सियाही जैसे गिर जाए दम-ए-तहरीर काग़ज़ पर

सियाही जैसे गिर जाए दम-ए-तहरीर काग़ज़ पर

मिरी क़िस्मत में यूँ तस्वीर है शब-हा-ए-हिज्राँ की

कहूँ क्या गर्म-जोशी मय-कशी में शोला-रूयाँ की

कि शम-ए-ख़ाना-ए-दिल आतिश-ए-मय से फ़रोज़ाँ की

हमेशा मुझ को तिफ़्ली में भी मश्क़-ए-तीरह-रोज़ी थी

सियाही है मिरे अय्याम में लौह-ए-दबिस्ताँ की

दरेग़! आह-ए-सहर-गह कार-ए-बाद-ए-सुब्ह करती है

कि होती है ज़ियादा सर्द-मेहरी शम्अ-रूयाँ की

मुझे अपने जुनूँ की बे-तकल्लुफ़ पर्दा-दारी थी

व-लेकिन क्या करूँ आवे जो रुस्वाई गरेबाँ की

हुनर पैदा किया है मैं ने हैरत-आज़माई में

कि जौहर आईने का हर पलक है चश्म-ए-हैराँ की

ख़ुदाया किस क़दर अहल-ए-नज़र ने ख़ाक छानी है

कि हैं सद-रख़्ना जूँ ग़िर्बाल दीवारें गुलिस्ताँ की

हुआ शर्म-ए-तही-दस्ती से से वो भी सर-निगूँ आख़िर

बस ऐ ज़ख़्म-ए-जिगर अब देख ले शोरिश नमक-दाँ की

बयाद-ए-गर्मी-ए-सोहबत ब-रंग-ए-शोला दहके है

छुपाऊँ क्यूँकि 'ग़ालिब' सोज़िशें दाग़-ए-नुमायाँ की

जुनूँ तोहमत-कश-ए-तस्कीं न हो गर शादमानी की

नमक-पाश-ए-ख़राश-ए-दिल है लज़्ज़त ज़िंदगानी की

कशाकश-हा-ए-हस्ती से करे क्या सई-ए-आज़ादी

हुइ ज़ंजीर-ए-मौज-ए-आब को फ़ुर्सत रवानी की

न खींच ऐ सई-ए-दस्त-ए-ना-रसा ज़ुल्फ़-ए-तमन्ना को

परेशाँ-तर है मू-ए-ख़ामा से तदबीर मानी की

कहाँ हम भी रग-ओ-पय रखते हैं इंसाफ़ बहत्तर है

न खींचे ताक़त-ए-ख़म्याज़ा तोहमत ना-तवानी की

तकल्लुफ़-बरतरफ़ फ़रहाद और इतनी सुबु-दस्ती

ख़याल आसाँ था लेकिन ख़्वाब-ए-ख़ुसरव ने गिरानी की

पस-अज़-मुर्दन भी दीवाना ज़ियारत-गाह-ए-तिफ़्लाँ है

शरार-ए-संग ने तुर्बत पे मेरी गुल-फ़िशानी की

'असद' को बोरिए में धर के फूँका मौज-ए-हस्ती ने

फ़क़ीरी में भी बाक़ी है शरारत नौजवानी की

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