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शौक़ हर रंग रक़ीब-ए-सर-ओ-सामाँ निकला - ग़ालिब कविता - Darsaal

शौक़ हर रंग रक़ीब-ए-सर-ओ-सामाँ निकला

शौक़ हर रंग रक़ीब-ए-सर-ओ-सामाँ निकला

क़ैस तस्वीर के पर्दे में भी उर्यां निकला

ज़ख़्म ने दाद न दी तंगी-ए-दिल की या रब

तीर भी सीना-ए-बिस्मिल से पर-अफ़्शाँ निकला

बू-ए-गुल नाला-ए-दिल दूद-ए-चराग़-ए-महफ़िल

जो तिरी बज़्म से निकला सो परेशाँ निकला

दिल-ए-हसरत-ज़दा था माइदा-ए-लज़्ज़त-ए-दर्द

काम यारों का ब-क़दर-ए-लब-ओ-दंदाँ निकला

थी नौ-आमूज़-ए-फ़ना हिम्मत-ए-दुश्वार-पसंद

सख़्त मुश्किल है कि ये काम भी आसाँ निकला

दिल में फिर गिर्ये ने इक शोर उठाया 'ग़ालिब'

आह जो क़तरा न निकला था सो तूफ़ाँ निकला

कार-ख़ाने से जुनूँ के भी मैं उर्यां निकला

मेरी क़िस्मत का न एक-आध गरेबाँ निकला

साग़र-ए-जल्वा-ए-सरशार है हर ज़र्रा-ए-ख़ाक

शौक़-ए-दीदार बला आइना-सामाँ निकला

कुछ खटकता था मिरे सीने में लेकिन आख़िर

जिस को दिल कहते थे सो तीर का पैकाँ निकला

किस क़दर ख़ाक हुआ है दिल-ए-मजनूँ या रब

नक़्श-ए-हर-ज़र्रा सुवैदा-ए-बयाबाँ निकला

शोर-ए-रुसवाई-ए-दिल देख कि यक-नाला-ए-शौक़

लाख पर्दे में छुपा पर वही उर्यां निकला

शोख़ी-ए-रंग-ए-हिना ख़ून-ए-वफ़ा से कब तक

आख़िर ऐ अहद-शिकन तू भी पशेमाँ निकला

जौहर-ईजाद-ए-ख़त-ए-सब्ज़ है ख़ुद-बीनी-ए-हुस्न

जो न देखा था सो आईने में पिन्हाँ निकला

मैं भी माज़ूर-ए-जुनूँ हूँ 'असद' ऐ ख़ाना-ख़राब

पेशवा लेने मुझे घर से बयाबाँ निकला

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