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शबनम ब-गुल-ए-लाला न ख़ाली ज़-अदा है - ग़ालिब कविता - Darsaal

शबनम ब-गुल-ए-लाला न ख़ाली ज़-अदा है

शबनम ब-गुल-ए-लाला न ख़ाली ज़-अदा है

दाग़-ए-दिल-ए-बेदर्द नज़र-गाह-ए-हया है

दिल ख़ूँ-शुदा-ए-कशमकश-ए-हसरत-ए-दीदार

आईना ब-दस्त-ए-बुत-ए-बद-मस्त हिना है

शोले से न होती हवस-ए-शोला ने जो की

जी किस क़दर अफ़्सुर्दगी-ए-दिल पे जला है

तिमसाल में तेरी है वो शोख़ी कि ब-सद-ज़ौक़

आईना ब-अंदाज़-ए-गुल आग़ोश-कुशा है

क़ुमरी कफ़-ए-ख़ाकीस्तर ओ बुलबुल क़फ़स-ए-रंग

ऐ नाला निशान-ए-जिगर-ए-सोख़्ता क्या है

ख़ू ने तिरी अफ़्सुर्दा किया वहशत-ए-दिल को

माशूक़ी ओ बे-हौसलगी तरफ़ा बला है

मजबूरी ओ दावा-ए-गिरफ़्तारी-ए-उल्फ़त

दस्त-ए-तह-ए-संग-आमदा पैमान-ए-वफ़ा है

मालूम हुआ हाल-ए-शहीदान-ए-गुज़श्ता

तेग़-ए-सितम आईना-ए-तस्वीर-नुमा है

ऐ परतव-ए-ख़ुर्शीद-ए-जहाँ-ताब इधर भी

साए की तरह हम पे अजब वक़्त पड़ा है

ना-कर्दा गुनाहों की भी हसरत की मिले दाद

या रब अगर इन कर्दा गुनाहों की सज़ा है

बेगानगी-ए-ख़ल्क़ से बे-दिल न हो 'ग़ालिब'

कोई नहीं तेरा तो मिरी जान ख़ुदा है

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