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सताइश-गर है ज़ाहिद इस क़दर जिस बाग़-ए-रिज़वाँ का - ग़ालिब कविता - Darsaal

सताइश-गर है ज़ाहिद इस क़दर जिस बाग़-ए-रिज़वाँ का

सताइश-गर है ज़ाहिद इस क़दर जिस बाग़-ए-रिज़वाँ का

वो इक गुल-दस्ता है हम बे-ख़ुदों के ताक़-ए-निस्याँ का

बयाँ क्या कीजिए बेदाद-ए-काविश-हा-ए-मिज़गाँ का

कि हर यक क़तरा-ए-ख़ूँ दाना है तस्बीह-ए-मरजाँ का

न आई सतवत-ए-क़ातिल भी माने मेरे नालों को

लिया दाँतों में जो तिनका हुआ रेशा नीस्ताँ का

दिखाऊँगा तमाशा दी अगर फ़ुर्सत ज़माने ने

मिरा हर दाग़-ए-दिल इक तुख़्म है सर्व-ए-चराग़ाँ का

किया आईना-ख़ाने का वो नक़्शा तेरे जल्वे ने

करे जो परतव-ए-ख़ुर्शीद आलम शबनमिस्ताँ का

मिरी ता'मीर में मुज़्मर है इक सूरत ख़राबी की

हयूला बर्क़-ए-ख़िर्मन का है ख़ून-ए-गरम दहक़ाँ का

उगा है घर में हर सू सब्ज़ा वीरानी तमाशा कर

मदार अब खोदने पर घास के है मेरे दरबाँ का

ख़मोशी में निहाँ ख़ूँ-गश्ता लाखों आरज़ूएँ हैं

चराग़-ए-मुर्दा हूँ मैं बे-ज़बाँ गोर-ए-ग़रीबाँ का

हनूज़ इक परतव-ए-नक़्श-ए-ख़याल-ए-यार बाक़ी है

दिल-ए-अफ़सुर्दा गोया हुज्रा है यूसुफ़ के ज़िंदाँ का

बग़ल में ग़ैर की आज आप सोते हैं कहीं वर्ना

सबब क्या ख़्वाब में आ कर तबस्सुम-हा-ए-पिन्हाँ का

नहीं मालूम किस किस का लहू पानी हुआ होगा

क़यामत है सरिश्क-आलूदा होना तेरी मिज़्गाँ का

नज़र में है हमारी जादा-ए-राह-ए-फ़ना 'ग़ालिब'

कि ये शीराज़ा है आलम के अज्ज़ा-ए-परेशाँ का

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