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सरापा रेहन-इश्क़-ओ-ना-गुज़ीर-उल्फ़त-हस्ती - ग़ालिब कविता - Darsaal

सरापा रेहन-इश्क़-ओ-ना-गुज़ीर-उल्फ़त-हस्ती

सरापा रेहन-इश्क़-ओ-ना-गुज़ीर-उल्फ़त-हस्ती

इबादत बर्क़ की करता हूँ और अफ़्सोस हासिल का

ब-क़द्र-ए-ज़र्फ़ है साक़ी ख़ुमार-ए-तिश्ना-कामी भी

जो तू दरिया-ए-मै है तो मैं ख़म्याज़ा हूँ साहिल का

ज़ि-बस खूँ-गश्त-ए-रश्क-ए-वफ़ा था वहम बिस्मिल का

चुराया ज़ख़्म-हा-ए-दिल ने पानी तेग़-ए-क़ातिल का

निगाह-ए-चश्म-ए-हासिद वाम ले ऐ ज़ौक़-ए-ख़ुद-बीनी

तमाशाई हूँ वहदत-ख़ाना-ए-आईना-ए-दिल का

शरर-फ़ुर्सत निगह सामान-ए-यक-आलम चराग़ाँ है

ब-क़द्र-ए-रंग याँ गर्दिश में है पैमाना महफ़िल का

सरासर ताख़तन को शश-जिहत यक-अर्सा जौलाँ था

हुआ वामांदगी से रह-रवाँ की फ़र्क़ मंज़िल का

मुझे राह-ए-सुख़न में ख़ौफ़-ए-गुम-राही नहीं ग़ालिब

असा-ए-ख़िज़्र-ए-सहरा-ए-सुख़न है ख़ामा बे-दिल का

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