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रुख़-ए-निगार से है सोज़-ए-जावेदानी-ए-शमा - ग़ालिब कविता - Darsaal

रुख़-ए-निगार से है सोज़-ए-जावेदानी-ए-शमा

रुख़-ए-निगार से है सोज़-ए-जावेदानी-ए-शम्मअ

हुई है आतिश-ए-गुल आब-ए-ज़ि़ंदगानी-ए-शम्मअ

ज़बान-ए-अहल-ए-ज़बाँ में है मर्ग ख़ामोशी

ये बात बज़्म में रौशन हुई ज़बानी-ए-शम्मअ

करे है सर्फ़ ब-ईमा-ए-शोला क़िस्सा तमाम

ब-तर्ज़-ए-अहल-ए-फ़ना है फ़साना-ख़्वानी-ए-शम्मअ

ग़म उस को हसरत-ए-परवाना का है ऐ शोले

तिरे लरज़ने से ज़ाहिर है ना-तवानी-ए-शम्मअ

तिरे ख़याल से रूह एहतिज़ाज़ करती है

ब-जल्वा-रेज़ी-ए-बाद ओ ब-पर-फ़िशानी-ए-शम्मअ

नशात-ए-दाग़-ए-ग़म-ए-इश्क़ की बहार न पूछ

शगुफ़्तगी है शहीद-ए-गुल-ए-खिज़ानी-ए-शम्मअ

जले है देख के बालीन-ए-यार पर मुझ को

न क्यूँ हो दिल पे मिरे दाग़-ए-बद-गुमानी-ए-शम्मअ

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