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रश्क कहता है कि उस का ग़ैर से इख़्लास हैफ़ - ग़ालिब कविता - Darsaal

रश्क कहता है कि उस का ग़ैर से इख़्लास हैफ़

रश्क कहता है कि उस का ग़ैर से इख़्लास हैफ़

अक़्ल कहती है कि वो बे-मेहर किस का आश्ना

ज़र्रा ज़र्रा साग़र-ए-मै-ख़ाना-ए-नै-रंग है

गर्दिश-ए-मजनूँ ब-चश्मक-हा-ए-लैला आश्ना

शौक़ है सामाँ-तराज़-ए-नाज़िश-ए-अरबाब-ए-अज्ज़

ज़र्रा सहरा-दस्त-गाह ओ क़तरा दरिया-आश्ना

मैं और एक आफ़त का टुकड़ा वो दिल-ए-वहशी कि है

आफ़ियत का दुश्मन और आवारगी का आश्ना

शिकवा-संज-ए-रश्क-ए-हम-दीगर न रहना चाहिए

मेरा ज़ानू मूनिस और आईना तेरा आश्ना

कोहकन नक़्क़ाश-ए-यक-तिम्साल-ए-शीरीं था 'असद'

संग से सर मार कर होवे न पैदा आश्ना

ख़ुद-परस्ती से रहे बाहम-दिगर ना-आश्ना

बेकसी मेरी शरीक आईना तेरा आश्ना

आतिश-ए-मू-ए-दिमाग़-ए-शौक़ है तेरा तपाक

वर्ना हम किस के हैं ऐ दाग़-ए-तमन्ना आश्ना

जौहर-ए-आईना जुज़ रम्ज़-ए-सर-ए-मिज़गाँ नहीं

आश्ना की हम-दिगर समझे है ईमा आश्ना

रब्त-ए-यक-शीराज़ा-ए-वहशत हैं अजज़ा-ए-बहार

सब्ज़ा बेगाना सबा आवारा गुल ना-आश्ना

बे-दिमाग़ी शिकवा-संज-ए-रश्क-ए-हम-दीगर नहीं

यार तेरा जाम-ए-मय ख़म्याज़ा मेरा आश्ना

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