रहिए अब ऐसी जगह चल कर जहाँ कोई न हो
हम-सुख़न कोई न हो और हम-ज़बाँ कोई न हो
बे-दर-ओ-दीवार सा इक घर बनाया चाहिए
कोई हम-साया न हो और पासबाँ कोई न हो
पड़िए गर बीमार तो कोई न हो तीमारदार
और अगर मर जाइए तो नौहा-ख़्वाँ कोई न हो
Anwar Masood
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अर्ज़-ए-नियाज़-ए-इश्क़ के क़ाबिल नहीं रहा
सितम-कश मस्लहत से हूँ कि ख़ूबाँ तुझ पे आशिक़ हैं
जब तक दहान-ए-ज़ख़्म न पैदा करे कोई
ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता
कोई उम्मीद बर नहीं आती
भागे थे हम बहुत सो उसी की सज़ा है ये
हो गई है ग़ैर की शीरीं-बयानी कारगर
रहे न जान तो क़ातिल को ख़ूँ-बहा दीजे
फिर उसी बेवफ़ा पे मरते हैं
बे-ख़ुदी बे-सबब नहीं 'ग़ालिब'
क्या वो नमरूद की ख़ुदाई थी
कब वो सुनता है कहानी मेरी