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रहा गर कोई ता-क़यामत सलामत - ग़ालिब कविता - Darsaal

रहा गर कोई ता-क़यामत सलामत

रहा गर कोई ता-क़यामत सलामत

फिर इक रोज़ मरना है हज़रत सलामत!

जिगर को मिरे इश्क़-ए-खूँ-नाबा-मशरब

लिखे है ख़ुदावंद-ए-नेमत सलामत

अलर्रग़्म-ए-दुश्मन शहीद-ए-वफ़ा हूँ

मुबारक मुबारक सलामत सलामत

नहीं गर सर-ओ-बर्ग-ए-इदराक-ए-मानी

तमाशा-ए-नैरंग-ए-सूरत सलामत

दो-आलम की हस्ती पे ख़त्त-ए-फ़ना खींच

दिल-ओ-दस्त-ए-अरबाब-ए-हिम्मत सलामत

नहीं गर ब-काम-ए-दिल-ए-ख़स्ता गर्दूं

जिगर-ख़ाई-ए-जोश-ए-हसरत सलामत

न औरों की सुनता न कहता हूँ अपनी

सर-ए-ख़स्ता दुश्वार-ए-वहशत सलामत

वफ़ूर-ए-बला है हुजूम-ए-वफ़ा है

सलामत मलामत मलामत सलामत

न फ़िक्र-ए-सलामत न बीम-ए-मलामत

ज़े-ख़ुद-रफ़्तगी-हा-ए-हैरत सलामत

रहे 'ग़ालिब'-ए-ख़स्ता मग़्लूब-ए-गर्दूं

ये क्या बे-नियाज़ी है हज़रत सलामत

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