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रफ़्तार-ए-उम्र क़त-ए-रह-ए-इज़्तिराब है - ग़ालिब कविता - Darsaal

रफ़्तार-ए-उम्र क़त-ए-रह-ए-इज़्तिराब है

रफ़्तार-ए-उम्र क़त-ए-रह-ए-इज़्तिराब है

इस साल के हिसाब को बर्क़ आफ़्ताब है

मीना-ए-मय है सर्व नशात-ए-बहार से

बाल-ए-तदर्रव जल्वा-ए-मौज-ए-शराब है

ज़ख़्मी हुआ है पाश्ना पा-ए-सबात का

ने भागने की गूँ न इक़ामत की ताब है

जादाद-ए-बादा-नोशी-ए-रिन्दाँ है शश-जिहत

ग़ाफ़िल गुमाँ करे है कि गीती ख़राब है

नज़्ज़ारा क्या हरीफ़ हो उस बर्क़-ए-हुस्न का

जोश-ए-बहार जल्वे को जिस के नक़ाब है

मैं ना-मुराद दिल की तसल्ली को क्या करूँ

माना कि तेरे रुख़ से निगह कामयाब है

गुज़रा 'असद' मसर्रत-ए-पैग़ाम-ए-यार से

क़ासिद पे मुझ को रश्क-ए-सवाल-ओ-जवाब है

ज़ाहिर है तर्ज़-ए-क़ैद से सय्याद की ग़रज़

जो दाना दाम में है सो अश्क-ए-कबाब है

बे-चश्म-ए-दिल न कर हवस-ए-सैर-ए-लाला-ज़ार

यानी ये हर वरक़ वरक़-ए-इंतिख़ाब है

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