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क़तरा-ए-मय बस-कि हैरत से नफ़स-परवर हुआ - ग़ालिब कविता - Darsaal

क़तरा-ए-मय बस-कि हैरत से नफ़स-परवर हुआ

क़तरा-ए-मय बस-कि हैरत से नफ़स-परवर हुआ

ख़त्त-ए-जाम-ए-मै सरासर रिश्ता-ए-गौहर हुआ

ए'तिबार-ए-इश्क़ की ख़ाना-ख़राबी देखना

ग़ैर ने की आह लेकिन वो ख़फ़ा मुझ पर हुआ

गरमी-ए-दौलत हुइ आतिश-ज़न-ए-नाम-ए-निको

ख़ाना-ए-ख़ातिम में याक़ूत-ए-नगीं अख़्तर हुआ

नश्शा में गुम-कर्दा-राह आया वो मस्त-ए-फ़ित्ना-ख़ू

आज रंग-रफ़्ता दौर-ए-गर्दिश-ए-साग़र हुआ

दर्द से दर-पर्दा दी मिज़्गाँ-सियाहाँ ने शिकस्त

रेज़ा रेज़ा उस्तुख़्वाँ का पोस्त में नश्तर हुआ

ज़ोहद गरदीदन है गर्द-ए-ख़ाना-हा-ए-मुनइमाँ

दाना-ए-तस्बीह से मैं मोहरा-दर-शश्दर हुआ

ऐ ब-ज़ब्त-ए-हाल-ए-ना-अफ़्सुर्दागाँ जोश-ए-जुनूँ

नश्शा-ए-मय है अगर यक-पर्दा नाज़ुक-तर हुआ

इस चमन में रेशा-दारी जिस ने सर खेंचा 'असद'

तर ज़बान-ए-लुत्फ़-ए-आम-ए-साक़ी-ए-कौसर हुआ

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