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क़फ़स में हूँ गर अच्छा भी न जानें मेरे शेवन को - ग़ालिब कविता - Darsaal

क़फ़स में हूँ गर अच्छा भी न जानें मेरे शेवन को

क़फ़स में हूँ गर अच्छा भी न जानें मेरे शेवन को

मिरा होना बुरा क्या है नवा-संजान-ए-गुलशन को

नहीं गर हमदमी आसाँ न हो ये रश्क क्या कम है

न दी होती ख़ुदाया आरज़ुवे-ए-दोस्त दुश्मन को

न निकला आँख से तेरी इक आँसू उस जराहत पर

किया सीने में जिस ने ख़ूँ-चकाँ मिज़्गान-ए-सोज़न को

ख़ुदा शरमाए हाथों को कि रखते हैं कशाकश में

कभी मेरे गरेबाँ को कभी जानाँ के दामन को

अभी हम क़त्ल-गह का देखना आसाँ समझते हैं

नहीं देखा शनावर जू-ए-ख़ूँ में तेरे तौसन को

हुआ चर्चा जो मेरे पाँव की ज़ंजीर बनने का

किया बेताब काँ में जुम्बिश-ए-जौहर ने आहन को

ख़ुशी क्या खेत पर मेरे अगर सौ बार अब्र आवे

समझता हूँ कि ढूँडे है अभी से बर्क़ ख़िर्मन को

वफ़ा-दारी ब-शर्त-ए-उस्तुवारी अस्ल ईमाँ है

मरे बुत-ख़ाने में तो कअ'बे में गाड़ो बरहमन को

शहादत थी मिरी क़िस्मत में जो दी थी ये ख़ू मुझ को

जहाँ तलवार को देखा झुका देता था गर्दन को

न लुटता दिन को तो कब रात को यूँ बे-ख़बर सोता!

रहा खटका न चोरी का दुआ देता हूँ रहज़न को

सुख़न क्या कह नहीं सकते कि जूया हूँ जवाहिर के

जिगर क्या हम नहीं रखते कि खोदें जा के मादन को

मिरे शाह-ए-सुलैमाँ-जाह से निस्बत नहीं 'ग़ालिब'

फ़रीदून ओ जम ओ केख़ुसरौ ओ दाराब ओ बहमन को

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