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निकोहिश है सज़ा फ़रियादी-ए-बे-दाद-ए-दिलबर की - ग़ालिब कविता - Darsaal

निकोहिश है सज़ा फ़रियादी-ए-बे-दाद-ए-दिलबर की

निकोहिश है सज़ा फ़रियादी-ए-बे-दाद-ए-दिलबर की

मबादा ख़ंदा-ए-दंदाँ-नुमा हो सुब्ह महशर की

रग-ए-लैला को ख़ाक-ए-दश्त-ए-मजनूँ रेशगी बख़्शे

अगर बोवे बजा-ए-दाना दहक़ाँ नोक निश्तर की

पर-ए-परवाना शायद बादबान-ए-कश्ती-ए-मय था

हुई मज्लिस की गर्मी से रवानी दौर-ए-साग़र की

करूँ बे-दाद-ए-ज़ौक़-ए-पुर-फ़िशानी अर्ज़, क्या क़ुदरत!

कि ताक़त उड़ गई उड़ने से पहले मेरे शहपर की

कहाँ तक रोऊँ उस के ख़ेमे के पीछे क़यामत है

मिरी क़िस्मत में या-रब क्या न थी दीवार पत्थर की

ब-जुज़ दीवानगी होता न अंजाम-ए-ख़ुद-आराई

अगर पैदा न करता आइना ज़ंजीर जौहर की

ग़ुरूर-ए-लुत्फ़-ए-साक़ी नश्शा-ए-बे-बाकी-ए-मस्ताँ

नम-ए-दामान-ए-इस्याँ है तरावत मौज-ए-कौसर की

मिरा दिल माँगते हैं आरियत अहल-ए-हवस शायद

ये जाना चाहते हैं आज दावत में समुंदर की

'असद' जुज़ आब-ए-बख़्शीदन ज़े-दरिया ख़िज़्र को क्या था

डुबोता चश्मा-ए-हैवाँ में गर कश्ती सिकंदर की

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