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न गुल-ए-नग़्मा हूँ न पर्दा-ए-साज़ - ग़ालिब कविता - Darsaal

न गुल-ए-नग़्मा हूँ न पर्दा-ए-साज़

न गुल-ए-नग़्मा हूँ न पर्दा-ए-साज़

मैं हूँ अपनी शिकस्त की आवाज़

तू और आराइश-ए-ख़म-ए-काकुल

मैं और अंदेशा-हा-ए-दूर-दराज़

लाफ़-ए-तमकीं फ़रेब-ए-सादा-दिली

हम हैं और राज़-हा-ए-सीना-गुदाज़

हूँ गिरफ़्तार-ए-उल्फ़त-ए-सय्याद

वर्ना बाक़ी है ताक़त-ए-परवाज़

वो भी दिन हो कि उस सितमगर से

नाज़ खींचूँ बजाए हसरत-ए-नाज़

नहीं दिल में मिरे वो क़तरा-ए-ख़ूँ

जिस से मिज़्गाँ हुई न हो गुल-बाज़

ऐ तिरा ग़म्ज़ा यक-क़लम-अंगेज़

ऐ तिरा ज़ुल्म सर-ब-सर अंदाज़

तू हुआ जल्वागर मुबारक हो

रेज़िश-ए-सज्दा-ए-जबीन-ए-नियाज़

मुझ को पूछा तो कुछ ग़ज़ब न हुआ

मैं ग़रीब और तू ग़रीब-नवाज़

'असद'-उल्लाह ख़ाँ तमाम हुआ

ऐ द़रीग़ा वो रिंद-ए-शाहिद-बाज़

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