मुँद गईं खोलते ही खोलते आँखें 'ग़ालिब'
यार लाए मिरी बालीं पे उसे पर किस वक़्त
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सादगी पर उस की मर जाने की हसरत दिल में है
सौ बार बंद-ए-इश्क़ से आज़ाद हम हुए
घर जब बना लिया तिरे दर पर कहे बग़ैर
फिर हुआ वक़्त कि हो बाल-कुशा मौज-ए-शराब
कम नहीं जल्वागरी में, तिरे कूचे से बहिश्त
हो गई है ग़ैर की शीरीं-बयानी कारगर
तंगी-ए-दिल का गिला क्या ये वो काफ़िर-दिल है
ज़ोफ़ में तअना-ए-अग़्यार का शिकवा क्या है
दर्द से मेरे है तुझ को बे-क़रारी हाए हाए
बस-कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना
महरम नहीं है तू ही नवा-हा-ए-राज़ का
ये फ़ित्ना आदमी की ख़ाना-वीरानी को क्या कम है