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माना-ए-दश्त-नवर्दी कोई तदबीर नहीं - ग़ालिब कविता - Darsaal

माना-ए-दश्त-नवर्दी कोई तदबीर नहीं

माना-ए-दश्त-नवर्दी कोई तदबीर नहीं

एक चक्कर है मिरे पाँव में ज़ंजीर नहीं

शौक़ उस दश्त में दौड़ाए है मुझ को कि जहाँ

जादा ग़ैर अज़ निगह-ए-दीदा-ए-तस्वीर नहीं

हसरत-ए-लज़्ज़त-ए-आज़ार रही जाती है

जादा-ए-राह-ए-वफ़ा जुज़ दम-ए-शमशीर नहीं

रंज-ए-नौमीदी-ए-जावेद गवारा रहियो

ख़ुश हूँ गर नाला-ज़बूनी कश-ए-तासीर नहीं

सर खुजाता है जहाँ ज़ख़्म-ए-सर अच्छा हो जाए

लज़्ज़त-ए-संग ब-अंदाज़ा-ए-तक़रीर नहीं

जब करम रुख़्सत-ए-बेबाकी-ओ-गुस्ताख़ी दे

कोई तक़्सीर ब-जुज़ ख़जलत-ए-तक़सीर नहीं

'ग़ालिब' अपना ये अक़ीदा है ब-क़ौल-ए-'नासिख़'

आप बे-बहरा है जो मो'तक़िद-ए-'मीर' नहीं

'मीर' के शेर का अहवाल कहूँ क्या 'ग़ालिब'

जिस का दीवान कम-अज़-गुलशन-ए-कश्मीर नहीं

आईना दाम को पर्दे में छुपाता है अबस

कि परी-ज़ाद-ए-नज़र क़ाबिल-ए-तस्ख़ीर नहीं

मिस्ल-ए-गुल ज़ख़्म है मेरा भी सिनाँ से तव्वाम

तेरा तरकश ही कुछ आबिस्तनी-ए-तीर नहीं

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