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महरम नहीं है तू ही नवा-हा-ए-राज़ का - ग़ालिब कविता - Darsaal

महरम नहीं है तू ही नवा-हा-ए-राज़ का

महरम नहीं है तू ही नवा-हा-ए-राज़ का

याँ वर्ना जो हिजाब है पर्दा है साज़ का

रंग-ए-शिकस्ता सुब्ह-ए-बहार-ए-नज़ारा है

ये वक़्त है शगुफ़्तन-ए-गुल-हा-ए-नाज़ का

तू और सू-ए-ग़ैर नज़र-हा-ए-तेज़ तेज़

मैं और दुख तिरी मिज़ा-हा-ए-दराज़ का

सर्फ़ा है ज़ब्त-ए-आह में मेरा वगरना में

तोमा हूँ एक ही नफ़स-ए-जाँ-गुदाज़ का

हैं बस-कि जोश-ए-बादा से शीशे उछल रहे

हर गोशा-ए-बिसात है सर शीशा-बाज़ का

काविश का दिल करे है तक़ाज़ा कि है हुनूज़

नाख़ुन पे क़र्ज़ इस गिरह-ए-नीम-बाज़ का

ताराज-ए-काविश-ए-ग़म-ए-हिज्राँ हुआ 'असद'

सीना कि था दफ़ीना गुहर-हा-ए-राज़ का

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