क्यूँकर उस बुत से रखूँ जान अज़ीज़
क्या नहीं है मुझे ईमान अज़ीज़
दिल से निकला पे न निकला दिल से
है तिरे तीर का पैकान अज़ीज़
ताब लाए ही बनेगी 'ग़ालिब'
वाक़िआ सख़्त है और जान अज़ीज़
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मैं भी रुक रुक के न मरता जो ज़बाँ के बदले
इश्क़ ने 'ग़ालिब' निकम्मा कर दिया
इब्न-ए-मरयम हुआ करे कोई
मैं भी मुँह में ज़बान रखता हूँ
देखना क़िस्मत कि आप अपने पे रश्क आ जाए है
न था कुछ तो ख़ुदा था कुछ न होता तो ख़ुदा होता
तुम सलामत रहो हज़ार बरस
हज़रत-ए-नासेह गर आवें दीदा ओ दिल फ़र्श-ए-राह
हस्ती के मत फ़रेब में आ जाइयो 'असद'
ख़ुदा शरमाए हाथों को कि रखते हैं कशाकश में
उधर वो बद-गुमानी है इधर ये ना-तवानी है
न सताइश की तमन्ना न सिले की परवा