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क्या तंग हम सितम-ज़दगाँ का जहान है - ग़ालिब कविता - Darsaal

क्या तंग हम सितम-ज़दगाँ का जहान है

क्या तंग हम सितम-ज़दगाँ का जहान है

जिस में कि एक बैज़ा-ए-मोर आसमान है

है काएनात को हरकत तेरे ज़ौक़ से

परतव से आफ़्ताब के ज़र्रे में जान है

हालाँकि है ये सीली-ए-ख़ारा से लाला रंग

ग़ाफ़िल को मेरे शीशे पे मय का गुमान है

की उस ने गर्म सीना-ए-अहल-ए-हवस में जा

आवे न क्यूँ पसंद कि ठंडा मकान है

क्या ख़ूब तुम ने ग़ैर को बोसा नहीं दिया

बस चुप रहो हमारे भी मुँह में ज़बान है

बैठा है जो कि साया-ए-दीवार-ए-यार में

फ़रमाँ-रवा-ए-किश्वर-ए-हिन्दुस्तान है

हस्ती का ए'तिबार भी ग़म ने मिटा दिया

किस से कहूँ कि दाग़ जिगर का निशान है

है बारे ए'तिमाद-ए-वफ़ा-दारी इस क़दर

'ग़ालिब' हम इस में ख़ुश हैं कि ना-मेहरबान है

देहली के रहने वालो 'असद' को सताओ मत

बे-चारा चंद रोज़ का याँ मेहमान है

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