कोई दिन गर ज़िंदगानी और है
कोई दिन गर ज़िंदगानी और है
अपने जी में हम ने ठानी और है
आतिश-ए-दोज़ख़ में ये गर्मी कहाँ
सोज़-ए-ग़म-हा-ए-निहानी और है
बार-हा देखी हैं उन की रंजिशें
पर कुछ अब के सरगिरानी और है
दे के ख़त मुँह देखता है नामा-बर
कुछ तो पैग़ाम-ए-ज़बानी और है
क़ाता-ए-एमार है अक्सर नुजूम
वो बला-ए-आसमानी और है
हो चुकीं 'ग़ालिब' बलाएँ सब तमाम
एक मर्ग-ए-ना-गहानी और है
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