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कभी नेकी भी उस के जी में गर आ जाए है मुझ से - ग़ालिब कविता - Darsaal

कभी नेकी भी उस के जी में गर आ जाए है मुझ से

कभी नेकी भी उस के जी में गर आ जाए है मुझ से

जफ़ाएँ कर के अपनी याद शरमा जाए है मुझ से

ख़ुदाया जज़्बा-ए-दिल की मगर तासीर उल्टी है

कि जितना खींचता हूँ और खिंचता जाए है मुझ से

वो बद-ख़ू और मेरी दास्तान-ए-इश्क़ तूलानी

इबारत मुख़्तसर क़ासिद भी घबरा जाए है मुझ से

उधर वो बद-गुमानी है इधर ये ना-तवानी है

न पूछा जाए है उस से न बोला जाए है मुझ से

सँभलने दे मुझे ऐ ना-उम्मीदी क्या क़यामत है

कि दामान-ए-ख़याल-ए-यार छूटा जाए है मुझ से

तकल्लुफ़ बरतरफ़ नज़्ज़ारगी में भी सही लेकिन

वो देखा जाए कब ये ज़ुल्म देखा जाए है मुझ से

हुए हैं पाँव ही पहले नबर्द-ए-इश्क़ में ज़ख़्मी

न भागा जाए है मुझ से न ठहरा जाए है मुझ से

क़यामत है कि होवे मुद्दई का हम-सफ़र 'ग़ालिब'

वो काफ़िर जो ख़ुदा को भी न सौंपा जाए है मुझ से

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