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जुज़ क़ैस और कोई न आया ब-रू-ए-कार - ग़ालिब कविता - Darsaal

जुज़ क़ैस और कोई न आया ब-रू-ए-कार

जुज़ क़ैस और कोई न आया ब-रू-ए-कार

सहरा मगर ब-तंगी-ए-चश्म-ए-हसूद था

आशुफ़्तगी ने नक़्श-ए-सुवैदा किया दुरुस्त

ज़ाहिर हुआ कि दाग़ का सरमाया दूद था

था ख़्वाब में ख़याल को तुझ से मुआमला

जब आँख खुल गई न ज़ियाँ था न सूद था

लेता हूँ मकतब-ए-ग़म-ए-दिल में सबक़ हनूज़

लेकिन यही कि रफ़्त गया और बूद था

ढाँपा कफ़न ने दाग़-ए-उयूब-ए-बरहनगी

मैं वर्ना हर लिबास में नंग-ए-वजूद था

तेशे बग़ैर मर न सका कोहकन 'असद'

सरगश्ता-ए-ख़ुमार-ए-रुसूम-ओ-क़ुयूद था

आलम जहाँ ब-अर्ज़-ए-बिसात-ए-वजूद था

जूँ सुब्ह चाक-ए-जेब मुझे तार-ओ-पूद था

बाज़ी-ख़ुर-ए-फ़रेब है अहल-ए-नज़र का ज़ौक़

हंगामा गर्म-ए-हैरत-ए-बूद-ओ-नबूद था

आलम तिलिस्म-ए-शहर-ए-ख़मोशी है सर-बसर

या मैं ग़रीब-ए-किश्वर-ए-गुफ़्त-ओ-शुनूद था

तंगी रफ़ीक़-ए-रह थी अदम या वजूद था

मेरा सफ़र ब-ताला-ए-चश्म-ए-हसूद था

तू यक-जहाँ क़माश-ए-हवस जम्अ कर कि मैं

हैरत-मता-ए-आलम-ए-नुक़्सान-ओ-सूद था

गर्दिश-मुहीत-ए-ज़ुल्म रहा जिस क़दर फ़लक

मैं पाएमाल-ए-ग़म्ज़ा-ए-चश्म-ए-कबूद था

पूछा था गरचे यार ने अहवाल-ए-दिल मगर

किस को दिमाग़-ए-मिन्नत-ए-गुफ़्त-ओ-शुनूद था

ख़ुर शबनम-आश्ना न हुआ वर्ना मैं 'असद'

सर-ता-क़दम गुज़ारिश-ए-ज़ौक़-ए-सुजूद था

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