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जुनूँ की दस्त-गीरी किस से हो गर हो न उर्यानी - ग़ालिब कविता - Darsaal

जुनूँ की दस्त-गीरी किस से हो गर हो न उर्यानी

जुनूँ की दस्त-गीरी किस से हो गर हो न उर्यानी

गरेबाँ-चाक का हक़ हो गया है मेरी गर्दन पर

बा-रंग-ए-कागज़-ए-आतिश-ज़दा नैरंग-ए-बेताबी

हज़ार आईना दिल बाँधे है बाल-ए-यक-तपीदन पर

फ़लक से हम को ऐश-ए-रफ़्ता का क्या क्या तक़ाज़ा है

मता-ए-बुर्दा को समझे हुए हैं क़र्ज़ रहज़न पर

हम और वो बे-सबब रंज-आशना दुश्मन कि रखता है

शुआ-ए-मेहर से तोहमत निगह की चश्म-ए-रौज़न पर

फ़ना को सौंप गर मुश्ताक़ है अपनी हक़ीक़त का

फ़रोग़-ए-ताला-ए-ख़ाशाक है मौक़ूफ़ गुलख़न पर

'असद' बिस्मिल है किस अंदाज़ का क़ातिल से कहता है

कि मश्क़-ए-नाज़ कर ख़ून-ए-दो-आलम मेरी गर्दन पर

फ़ुसून-ए-यक-दिली है लज़्ज़त-ए-बेदाद दुश्मन पर

कि वज्द-ए-बर्क़ जूँ परवाना बाल-अफ़्शाँ है ख़िर्मन पर

तकल्लुफ़ ख़ार-ख़ार-ए-इल्तिमास-ए-बे-क़ारारी है

कि रिश्ता बाँधता है पैरहन अंगुश्त-ए-सोज़न पर

ये क्या वहशत है ऐ दीवाने पेश-अज़-मर्ग वावैला

रक्खी बे-जा बिना-ए-ख़ाना-ए-ज़ंजीर-ए-शेवन पर

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