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जिस जा नसीम शाना-कश-ए-ज़ुल्फ़-ए-यार है - ग़ालिब कविता - Darsaal

जिस जा नसीम शाना-कश-ए-ज़ुल्फ़-ए-यार है

जिस जा नसीम शाना-कश-ए-ज़ुल्फ़-ए-यार है

नाफ़ा दिमाग़-ए-आहुव-ए-दश्त-ए-ततार है

किस का सुराग़ जल्वा है हैरत को ऐ ख़ुदा

आईना फ़र्श-ए-शश-जहत-ए-इंतिज़ार है

है ज़र्रा ज़र्रा तंगी-ए-जा से ग़ुबार-ए-शौक़

गर दाम ये है वुसअत-ए-सहरा शिकार है

दिल मुद्दई ओ दीदा बना मुद्दा-अलैह

नज़्ज़ारे का मुक़द्दमा फिर रू-ब-कार है

छिड़के है शबनम आईना-ए-बर्ग-ए-गुल पर आब

ऐ अंदलीब वक़्त-ए-वदा-ए-बहार है

पच आ पड़ी है वादा-ए-दिल-दार की मुझे

वो आए या न आए पे याँ इंतिज़ार है

बे-पर्दा सू-ए-वादी-ए-मजनूँ गुज़र न कर

हर ज़र्रा के नक़ाब में दिल बे-क़रार है

ऐ अंदलीब यक कफ़-ए-ख़स बहर-ए-आशयाँ

तूफ़ान-ए-आमद आमद-ए-फ़स्ल-ए-बहार है

दिल मत गँवा ख़बर न सही सैर ही सही

ऐ बे-दिमाग़ आईना तिमसाल-दार है

ग़फ़लत कफ़ील-ए-उम्र ओ 'असद' ज़ामिन-ए-नशात

ऐ मर्ग-ए-ना-गहाँ तुझे क्या इंतिज़ार है

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