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जब तक दहान-ए-ज़ख़्म न पैदा करे कोई - ग़ालिब कविता - Darsaal

जब तक दहान-ए-ज़ख़्म न पैदा करे कोई

जब तक दहान-ए-ज़ख़्म न पैदा करे कोई

मुश्किल कि तुझ से राह-ए-सुख़न वा करे कोई

आलम ग़ुबार-ए-वहशत-ए-मजनूँ है सर-ब-सर

कब तक ख़याल-ए-तुर्रा-ए-लैला करे कोई

अफ़्सुर्दगी नहीं तरब-इंशा-ए-इल्तिफ़ात

हाँ दर्द बन के दिल में मगर जा करे कोई

रोने से ऐ नदीम मलामत न कर मुझे

आख़िर कभी तो उक़्दा-ए-दिल वा करे कोई

चाक-ए-जिगर से जब रह-ए-पुर्सिश न वा हुई

क्या फ़ाएदा कि जैब को रुस्वा करे कोई

लख़्त-ए-जिगर से है रग-ए-हर-ख़ार शाख़-ए-गुल

ता चंद बाग़-बानी-ए-सहरा करे कोई

नाकामी-ए-निगाह है बर्क़-ए-नज़ारा-सोज़

तू वो नहीं कि तुझ को तमाशा करे कोई

हर संग ओ ख़िश्त है सदफ़-ए-गौहर-ए-शिकस्त

नुक़साँ नहीं जुनूँ से जो सौदा करे कोई

सर बर हुई न वादा-ए-सब्र-आज़मा से उम्र

फ़ुर्सत कहाँ कि तेरी तमन्ना करे कोई

है वहशत-ए-तबीअत-ए-ईजाद यास-खेज़

ये दर्द वो नहीं कि न पैदा करे कोई

बेकारी-ए-जुनूँ को है सर पीटने का शुग़्ल

जब हाथ टूट जाएँ तो फिर क्या करे कोई

हुस्न-ए-फ़रोग़-ए-शम्मा-ए-सुख़न दूर है 'असद'

पहले दिल-ए-गुदाख़्ता पैदा करे कोई

वहशत कहाँ कि बे-ख़ुदी इंशा करे कोई

हस्ती को लफ़्ज़-ए-मानी-ए-अन्क़ा करे कोई

जो कुछ है महव-ए-शोख़ी-ए-अबरू-ए-यार है

आँखों को रख के ताक़ पे देखा करे कोई

अर्ज़-ए-सरिश्क पर है फ़ज़ा-ए-ज़माना तंग

सहरा कहाँ कि दावत-ए-दरिया करे कोई

वो शोख़ अपने हुस्न पे मग़रूर है 'असद'

दिखला के उस को आइना तोड़ा करे कोई

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