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इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना - ग़ालिब कविता - Darsaal

इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना

इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना

दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना

तुझ से क़िस्मत में मिरी सूरत-ए-क़ुफ़्ल-ए-अबजद

था लिखा बात के बनते ही जुदा हो जाना

दिल हुआ कशमकश-ए-चारा-ए-ज़हमत में तमाम

मिट गया घिसने में इस उक़दे का वा हो जाना

अब जफ़ा से भी हैं महरूम हम अल्लाह अल्लाह

इस क़दर दुश्मन-ए-अरबाब-ए-वफ़ा हो जाना

ज़ोफ़ से गिर्या मुबद्दल ब-दम-ए-सर्द हुआ

बावर आया हमें पानी का हवा हो जाना

दिल से मिटना तिरी अंगुश्त-ए-हिनाई का ख़याल

हो गया गोश्त से नाख़ुन का जुदा हो जाना

है मुझे अब्र-ए-बहारी का बरस कर खुलना

रोते रोते ग़म-ए-फ़ुर्क़त में फ़ना हो जाना

गर नहीं निकहत-ए-गुल को तिरे कूचे की हवस

क्यूँ है गर्द-ए-रह-ए-जौलान-ए-सबा हो जाना

बख़्शे है जल्वा-ए-गुल ज़ौक़-ए-तमाशा 'ग़ालिब'

चश्म को चाहिए हर रंग में वा हो जाना

ता कि तुझ पर खुले एजाज़-ए-हवा-ए-सैक़ल

देख बरसात में सब्ज़ आइने का हो जाना

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