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हुस्न ग़म्ज़े की कशाकश से छुटा मेरे बअ'द - ग़ालिब कविता - Darsaal

हुस्न ग़म्ज़े की कशाकश से छुटा मेरे बअ'द

हुस्न ग़म्ज़े की कशाकश से छुटा मेरे बअ'द

बारे आराम से हैं अहल-ए-जफ़ा मेरे बअ'द

मंसब-ए-शेफ़्तगी के कोई क़ाबिल न रहा

हुई माज़ूली-ए-अंदाज़-ओ-अदा मेरे बअ'द

शम्अ' बुझती है तो उस में से धुआँ उठता है

शोला-ए-इश्क़ सियह-पोश हुआ मेरे बअ'द

ख़ूँ है दिल ख़ाक में अहवाल-ए-बुताँ पर यानी

उन के नाख़ुन हुए मुहताज-ए-हिना मेरे बअ'द

दर-ख़ुर-ए-अर्ज़ नहीं जौहर-ए-बेदाद को जा

निगह-ए-नाज़ है सुरमे से ख़फ़ा मेरे बअ'द

है जुनूँ अहल-ए-जुनूँ के लिए आग़ोश-ए-विदाअ'

चाक होता है गरेबाँ से जुदा मेरे बअ'द

कौन होता है हरीफ़-ए-मय-ए-मर्द-अफ़गन-ए-इश्क़

है मुकर्रर लब-ए-साक़ी पे सला मेरे बअ'द

ग़म से मरता हूँ कि इतना नहीं दुनिया में कोई

कि करे ताज़ियत-ए-मेहर-ओ-वफ़ा मेरे बअ'द

आए है बेकसी-ए-इश्क़ पे रोना 'ग़ालिब'

किस के घर जाएगा सैलाब-ए-बला मेरे बअ'द

थी निगह मेरी निहाँ-ख़ाना-ए-दिल की नक़्क़ाब

बे-ख़तर जीते हैं अरबाब-ए-रिया मेरे बअ'द

था मैं गुलदस्ता-ए-अहबाब की बंदिश की गियाह

मुतफ़र्रिक़ हुए मेरे रुफ़क़ा मेरे बअ'द

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