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हवस को है नशात-ए-कार क्या क्या - ग़ालिब कविता - Darsaal

हवस को है नशात-ए-कार क्या क्या

हवस को है नशात-ए-कार क्या क्या

न हो मरना तो जीने का मज़ा क्या

तजाहुल-पेशगी से मुद्दआ क्या

कहाँ तक ऐ सरापा नाज़ क्या क्या

नवाज़िश-हा-ए-बेजा देखता हूँ

शिकायत-हा-ए-रंगीं का गिला क्या

निगाह-ए-बे-महाबा चाहता हूँ

तग़ाफ़ुल-हा-ए-तमकीं-आज़मा क्या

फ़रोग़-ए-शोला-ए-ख़स यक-नफ़स है

हवस को पास-ए-नामूस-ए-वफ़ा क्या

नफ़स मौज-ए-मुहीत-ए-बे-ख़ुदी है

तग़ाफ़ुल-हा-ए-साक़ी का गिला क्या

दिमाग़-ए-इत्र-ए-पैराहन नहीं है

ग़म-ए-आवारगी-हा-ए-सबा क्या

दिल-ए-हर-क़तरा है साज़-ए-अनल-बहर

हम उस के हैं हमारा पूछना क्या

मुहाबा क्या है मैं ज़ामिन इधर देख

शहीदान-ए-निगह का ख़ूँ-बहा क्या

सुन ऐ ग़ारत-गर-ए-जिंस-ए-वफ़ा सुन

शिकस्त-ए-क़ीमत-ए-दिल की सदा क्या

किया किस ने जिगर-दारी का दावा

शकीब-ए-ख़ातिर-ए-आशिक़ भला क्या

ये क़ातिल वादा-ए-सब्र-आज़मा क्यूँ

ये काफ़िर फ़ित्ना-ए-ताक़त-रुबा क्या

बला-ए-जाँ है 'ग़ालिब' उस की हर बात

इबारत क्या इशारत क्या अदा क्या

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