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हसद से दिल अगर अफ़्सुर्दा है गर्म-ए-तमाशा हो - ग़ालिब कविता - Darsaal

हसद से दिल अगर अफ़्सुर्दा है गर्म-ए-तमाशा हो

हसद से दिल अगर अफ़्सुर्दा है गर्म-ए-तमाशा हो

कि चश्म-ए-तंग शायद कसरत-ए-नज़्ज़ारा से वा हो

ब-क़द्र-ए-हसरत-ए-दिल चाहिए ज़ौक़-ए-मआसी भी

भरूँ यक-गोशा-ए-दामन गर आब-ए-हफ़्त-दरिया हो

अगर वो सर्व-क़द गर्म-ए-ख़िराम-ए-नाज़ आ जावे

कफ़-ए-हर-ख़ाक-ए-गुलशन शक्ल-ए-क़ुमरी नाला-फ़र्सा हो

बहम बालीदन-ए-संग-ओ-गुल-ए-सहरा ये चाहे है

कि तार-ए-जादा भी कोहसार को ज़ुन्नार-ए-मीना हो

हरीफ़-ए-वहशत-ए-नाज़-ए-नसीम-ए-इश्क़ जब आऊँ

कि मिस्ल-ए-ग़ुंचा साज़-ए-यक-गुलिस्ताँ दिल मुहय्या हो

बजाए दाना ख़िर्मन यक-बयाबाँ बैज़ा-ए-कुमरी

मिरा हासिल वो नुस्ख़ा है कि जिस से ख़ाक पैदा हो

करे क्या साज़-ए-बीनिश वो शहीद-ए-दर्द-आगाही

जिसे मू-ए-दिमाग़-ए-बे-ख़ुदी ख़्वाब-ए-ज़ुलेख़ा हो

दिल-ए-जूँ-शम्अ' बहर-ए-दावत-ए-नज़्ज़ारा लायानी

निगह लबरेज़-ए-अश्क ओ सीना मामूर-ए-तमन्ना हो

न देखें रू-ए-यक-दिल सर्द ग़ैर-अज़ शम-ए-काफ़ूरी

ख़ुदाया इस क़दर बज़्म-ए-'असद' गर्म-ए-तमाशा हो

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