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है सब्ज़ा-ज़ार हर दर-ओ-दीवार-ए-ग़म-कदा - ग़ालिब कविता - Darsaal

है सब्ज़ा-ज़ार हर दर-ओ-दीवार-ए-ग़म-कदा

है सब्ज़ा-ज़ार हर दर-ओ-दीवार-ए-ग़म-कदा

जिस की बहार ये हो फिर उस की ख़िज़ाँ न पूछ

नाचार बेकसी की भी हसरत उठाइए

दुश्वारी-ए-रह ओ सितम-ए-हम-रहाँ न पूछ

जुज़ दिल सुराग़-ए-दर्द ब-दिल-ख़ुफ़्तागँ न पूछ

आईना अर्ज़ कर ख़त-ओ-ख़ाल-ए-बयाँ न पूछ

हिन्दोस्तान साया-ए-गुल पा-ए-तख़्त था

जाह-ओ-जलाल-ए-अहद-ए-विसाल-ए-बुताँ न पूछ

ग़फ़लत-मता-ए-कफ़्फ़ा-ए-मीज़ान-ए-अदल हूँ

या रब हिसाब-ए-सख़्ती-ए-ख़्वाब-ए-गिराँ न पूछ

हर दाग़-ए-ताज़ा यक-दिल-ए-दाग़-इंतिज़ार है

अर्ज़-ए-फ़ज़ा-ए-सीना-ए-दर्द-इम्तिहाँ न पूछ

कहता था कल वो महरम-ए-राज़ अपने से कि आह

दर्द-ए-जुदाइ-ए-'असद'-उल्लाह-ख़ाँ न पूछ

पर्वाज़-ए-यक-तप-ए-ग़म-ए-तसख़ीर-ए-नाला है

गरमी-ए-नब्ज़-ए-ख़ार-ओ-ख़स-ए-आशियाँ न पूछ

तू मश्क़-ए-बाज़ कर दिल-ए-परवाना है बहार

बेताबी-ए-तजल्ली-ए-आतिश-ब-जाँ न पूछ

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