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है आरमीदगी में निकोहिश बजा मुझे - ग़ालिब कविता - Darsaal

है आरमीदगी में निकोहिश बजा मुझे

है आरमीदगी में निकोहिश बजा मुझे

सुब्ह-ए-वतन है ख़ंदा-ए-दंदाँ-नुमा मुझे

ढूँडे है उस मुग़ंन्नी-ए-आतिश-नफ़स को जी

जिस की सदा हो जल्वा-ए-बर्क़-ए-फ़ना मुझे

मस्ताना तय करूँ हूँ रह-ए-वादी-ए-ख़याल

ता बाज़-गश्त से न रहे मुद्दआ मुझे

करता है बस-कि बाग़ में तू बे-हिजाबियाँ

आने लगी है निकहत-ए-गुल से हया मुझे

खुलता किसी पे क्यूँ मिरे दिल का मोआमला

शेरों के इंतिख़ाब ने रुस्वा किया मुझे

वाँ रंग-हा ब-पर्दा-ए-तदबीर हैं हुनूज़

याँ शोला-ए-चराग़ है बर्ग-ए-हिना मुझे

परवाज़-हा नियाज़-ए-तमाशा-ए-हुस्न-ए-दोस्त

बाल-ए-कुशादा है निगह-ए-आशना मुझे

अज़-खुद-गुज़श्तगी में ख़मोशी पे हर्फ़ है

मौज-ए-ग़ुबार-ए-सुर्मा हुई है सदा मुझे

ता चंद पस्त फ़ितरती-ए-तब-ए-आरज़ू

या रब मिले बुलंदी-ए-दस्त-ए-दुआ मुझे

मैं ने जुनूँ से की जो 'असद' इल्तिमास-ए-रंग

ख़ून-ए-जिगर में एक ही ग़ोता दिया मुझे

है पेचताब रिश्ता-ए-शम-ए-सहर-गही

ख़जलत गुदाज़ी-ए-नफ़स-ए-ना-रसा मुझे

याँ आब-ओ-दाना मौसम-ए-गुल में हराम है

ज़ुन्नार-ए-वा-गुसिस्ता है मौज-ए-सबा मुझे

यकबार इम्तिहान-ए-हवस भी ज़रूर है

ऐ जोश-ए-इश्क़ बादा-ए-मर्द-आज़मा मुझे

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