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ग़ाफ़िल ब-वहम-ए-नाज़ ख़ुद-आरा है वर्ना याँ - ग़ालिब कविता - Darsaal

ग़ाफ़िल ब-वहम-ए-नाज़ ख़ुद-आरा है वर्ना याँ

ग़ाफ़िल ब-वहम-ए-नाज़ ख़ुद-आरा है वर्ना याँ

बे-शाना-ए-सबा नहीं तुर्रा गयाह का

बज़्म-ए-क़दह से ऐश-ए-तमन्ना न रख कि रंग

सैद-ए-ज़े-दाम-ए-जस्ता है उस दाम-गाह का

रहमत अगर क़ुबूल करे क्या बईद है

शर्मिंदगी से उज़्र न करना गुनाह का

मक़्तल को किस नशात से जाता हूँ मैं कि है

पुर-गुल ख़याल-ए-ज़ख्म से दामन निगाह का

जाँ दर-हवा-ए-यक-निगह-ए-गर्म है 'असद'

परवाना है वकील तिरे दाद-ख़्वाह का

उज़्लत-गुज़ीन-ए-बज़्म हैं वामांदागान-ए-दीद

मीना-ए-मय है आबला पा-ए-निगाह का

हर गाम आबले से है दिल दर-तह-ए-क़दम

क्या बीम अहल-ए-दर्द को सख़्ती-ए-राह का

ताऊस-ए-दर-रिकाब है हर ज़र्रा आह का

या-रब नफ़स ग़ुबार है किस जल्वा-गाह का

जेब-ए-नियाज़-ए-इश्क़ निशाँ-दार-ए-नाज़ है

आईना हूँ शिकस्तन-ए-तर्फ़-ए-कुलाह का

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