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गर न अंदोह-ए-शब-ए-फ़ुर्क़त बयाँ हो जाएगा - ग़ालिब कविता - Darsaal

गर न अंदोह-ए-शब-ए-फ़ुर्क़त बयाँ हो जाएगा

गर न अंदोह-ए-शब-ए-फ़ुर्क़त बयाँ हो जाएगा

बे-तकल्लुफ़ दाग़-ए-मह मोहर-ए-दहाँ हो जाएगा

ज़ोहरा गर ऐसा ही शाम-ए-हिज्र में होता है आब

परतव-ए-महताब सैल-ए-ख़ानुमाँ हो जाएगा

ले तो लूँ सोते में उस के पाँव का बोसा मगर

ऐसी बातों से वो काफ़िर बद-गुमाँ हो जाएगा

दिल को हम सर्फ-ए-वफ़ा समझे थे क्या मालूम था

यानी ये पहले ही नज़्र-ए-इम्तिहाँ हो जाएगा

सब के दिल में है जगह तेरी जो तू राज़ी हुआ

मुझ पे गोया इक ज़माना मेहरबाँ हो जाएगा

गर निगाह-ए-गर्म फ़रमाती रही तालीम-ए-ज़ब्त

शोला ख़स में जैसे ख़ूँ रग में निहाँ हो जाएगा

बाग़ में मुझ को न ले जा वर्ना मेरे हाल पर

हर गुल-ए-तर एक चश्म-ए-ख़ूँ-फ़िशाँ हो जाएगा

वाए! गर मेरा तिरा इंसाफ़ महशर में न हो

अब तलक तो ये तवक़्क़ो है कि वाँ हो जाएगा

फ़ाएदा क्या सोच आख़िर तू भी दाना है 'असद'

दोस्ती नादाँ की है जी का ज़ियाँ हो जाएगा

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