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गर ख़ामुशी से फ़ाएदा इख़्फ़ा-ए-हाल है - ग़ालिब कविता - Darsaal

गर ख़ामुशी से फ़ाएदा इख़्फ़ा-ए-हाल है

गर ख़ामुशी से फ़ाएदा इख़्फ़ा-ए-हाल है

ख़ुश हूँ कि मेरी बात समझनी मुहाल है

किस को सुनाऊँ हसरत-ए-इज़हार का गिला

दिल फ़र्द-ए-जमा-ओ-ख़र्च ज़बाँ-हा-ए-लाल है

किस पर्दे में है आइना-पर्दाज़ ऐ ख़ुदा

रहमत कि उज़्र-ख़्वाह-ए-लब-ए-बे-सवाल है

है है ख़ुदा-न-ख़्वास्ता वो और दुश्मनी

ऐ शौक़-ए-मुन्फ़इल ये तुझे क्या ख़याल है

मुश्कीं लिबास-ए-काबा अली के क़दम से जान

नाफ़-ए-ज़मीन है न कि नाफ़-ए-ग़ज़ाल है

वहशत पे मेरी अरसा-ए-आफ़ाक़ तंग था

दरिया ज़मीन को अरक़-ए-इंफ़िआ'ल है

हस्ती के मत फ़रेब में आ जाइयो 'असद'

आलम तमाम हल्क़ा-ए-दाम-ए-ख़याल है

पहलू-तही न कर ग़म-ओ-अंदोह से 'असद'

दिल वक़्फ़-ए-दर्द कर कि फ़क़ीरों का माल है

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