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दीवानगी से दोश पे ज़ुन्नार भी नहीं - ग़ालिब कविता - Darsaal

दीवानगी से दोश पे ज़ुन्नार भी नहीं

दीवानगी से दोश पे ज़ुन्नार भी नहीं

यानी हमारे जैब में इक तार भी नहीं

दिल को नियाज़-ए-हसरत-ए-दीदार कर चुके

देखा तो हम में ताक़त-ए-दीदार भी नहीं

मिलना तिरा अगर नहीं आसाँ तो सहल है

दुश्वार तो यही है कि दुश्वार भी नहीं

बे-इश्क़ उम्र कट नहीं सकती है और याँ

ताक़त ब-क़दर-ए-लज़्ज़त-ए-आज़ार भी नहीं

शोरीदगी के हाथ से है सर वबाल-ए-दोश

सहरा में ऐ ख़ुदा कोई दीवार भी नहीं

गुंजाइश-ए-अदावत-ए-अग़्यार यक तरफ़

याँ दिल में ज़ोफ़ से हवस-ए-यार भी नहीं

डर नाला-हा-ए-ज़ार से मेरे ख़ुदा को मान

आख़िर नवा-ए-मुर्ग़-ए-गिरफ़्तार भी नहीं

दिल में है यार की सफ़-ए-मिज़्गाँ से रू-कशी

हालाँकि ताक़त-ए-ख़लिश-ए-ख़ार भी नहीं

इस सादगी पे कौन न मर जाए ऐ ख़ुदा

लड़ते हैं और हाथ में तलवार भी नहीं

देखा 'असद' को ख़ल्वत-ओ-जल्वत में बार-हा

दीवाना गर नहीं है तो हुश्यार भी नहीं

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