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दिल से तिरी निगाह जिगर तक उतर गई - ग़ालिब कविता - Darsaal

दिल से तिरी निगाह जिगर तक उतर गई

दिल से तिरी निगाह जिगर तक उतर गई

दोनों को इक अदा में रज़ा-मंद कर गई

शक़ हो गया है सीना ख़ुशा लज़्ज़त-ए-फ़राग़

तकलीफ़-ए-पर्दा-दारी-ए-ज़ख़्म-ए-जिगर गई

वो बादा-ए-शबाना की सरमस्तियाँ कहाँ

उठिए बस अब कि लज़्ज़त-ए-ख़्वाब-ए-सहर गई

उड़ती फिरे है ख़ाक मिरी कू-ए-यार में

बारे अब ऐ हवा हवस-ए-बाल-ओ-पर गई

देखो तो दिल-फ़रेबी-ए-अंदाज़-ए-नक़्श-ए-पा

मौज-ए-ख़िराम-ए-यार भी क्या गुल कतर गई

हर बुल-हवस ने हुस्न-परस्ती शिआर की

अब आबरू-ए-शेवा-ए-अहल-ए-नज़र गई

नज़्ज़ारे ने भी काम किया वाँ नक़ाब का

मस्ती से हर निगह तिरे रुख़ पर बिखर गई

फ़र्दा ओ दी का तफ़रक़ा यक बार मिट गया

कल तुम गए कि हम पे क़यामत गुज़र गई

मारा ज़माने ने असदुल्लाह ख़ाँ तुम्हें

वो वलवले कहाँ वो जवानी किधर गई

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